ग़ज़ल
बुझे दिल पर मुसर्रत का कोई आलम नहीं होता
हज़ारों चांद हों फिर भी अंधेरा कम नहीं होता
ये ज़ख़्मे दिल किसी भी हाल में भरता नहीं मेरा
तुम्हारे लब पे चाहत का अगर मरहम नहीं होता
ख़ुशी का ज़ाएक़ा हमलोग शायद भूल ही जाते
अगर इस ज़िन्दगी में इक ज़रा सा ग़म नहीं होता
ख़िज़ाँ के आने जाने का तो इक मख़सूस मौसम है
ग़मों के दिल दुखाने का कोई मौसम नहीं होता
हमें तो दुश्मनाने वक़्त बिलकुल मार ही देते
हमारे हाथों में गर इश्क़ का परचम नहीं होता
मुहब्बत के सफ़र में साथ बस तनहाई देती है
कोई साथी नहीं होता कोई हमदम नहीं होता
वो मेरे पास हो या फिर नज़र से दूर हो जाए
मगर जो इश्क़ का जज़्बा है नुसरत कम नहीं होता
मुसर्रत….. ख़ुशी
आलम…… समय, काल
लब…. होंठ
ज़ाएक़ा…. स्वाद
ख़िज़ाँ….. पतझड़
दुश्मनाने वक़्त… समय के शत्रु
परचम….. झंडा
हमदम…. मित्र,साथी
जज़्बा….. लगन
नुसरत अतीक़ गोरखपुरी